” खुशियाँ लिये अपार ” !!
नेह निमंत्रण भेजे तुमने ,
हैं पलकों के द्वार !
भाग जगे हैं मेरे या फिर ,
कहूँ इसे उपकार !!
तुम तो हिम्मत वाली निकली ,
मैं थोड़ा बुजदिल ठहरा !
तोड़ न पाया , तटबन्धों को ,
यहाँ वक्त का है पहरा !
करती रहती हो किलोल तुम ,
मैं बैठा इस पार !!
मदिर गंध के झोंके आते ,
पल पल महका जाते हैं !
याद सदा आँखों में सरसे ,
खुद को बहका पाते हैं !
तुम बैठी श्रृंगार कर रही ,
खुशियाँ लिये अपार !!
मैंने खुद को बांध लिया है ,
तुम्हें अंक में पाना है !
दिखने को हम दो दिखते हैं ,
हमें एक हो जाना है !
मेरा मन भी है उतावला ,
लिये हाथ उपहार !!
कैनवास पर छवि जो बिखरी ,
उसमें छवि निहारूँ मैं !
दबे पाँव आती हो ऐसे ,
सपनों बीच पुकारूँ मैं !
रंग भरा जीवन में तुमने ,
देकर के गलहार !!
स्वरचित / रचियता :
बृज व्यास
शाजापुर ( मध्यप्रदेश )