खुद से या खुदा से
राह चाहत में तुम्हारी
दिल रोता है अक्सर
ऐ खुदा कहाँ है तेरी मोहब्बत
अक्सर राह मेरी सोहबत खड़ा हैं ।
ऐ खुदा तू तो बड़ा है।
उलझे खड़ी हूँ I
हर कदम लड़ी हूँ ।
जीत या हार
मुश्किल में पड़ी हूँ
खौफ ज्यादा करती है।
अन्दर ,बाहर की दुनियाँ ,
क्योंकि ,इसी में पड़ी हूं ।
बाहर नहीं तो अन्दर ही सही
नई रोशनी जगा दें
कभी ना देखी तुम्हारी असली सूरत |
राहनुमा बनकर
खुद से खुद को मिला दें ।
अब तो ऐसी ही सजा दें। _ डॉ. सीमा कुमारी ,बिहार
( भागलपुर) स्वरचित रचना, दिनांक 28-12-017, आज प्रकाशित कर रही हूँ ।