खुद को भी समझाइए साहिब
ऐसी भी क्या नाराजगी फरमाइए साहिब
बातें हैं जो भी दिल में वो बतलाइए साहिब
भूखे मरोगे कब तलक ईमानदारी में
थाली भरी है व्यंजनों से खाइए साहिब
आईना खुद ही कह रहा दीदार से पहले
मुस्कुराकर आदमी बन जाइए साहिब
भारी पड़ेगी कैमरे की आँख है शातिर
उलझी हुई जुल्फों को मत सुलझाइए साहिब
मजबूत हो बुनियाद घर की चाहते हैं ग़र
तालीम बच्चों को सही दिलवाइए साहिब
आते बड़ी उम्मीद से सब न्याय पाने को
बेबस गरीबों को न यूँ टहलाइए साहिब
खाली रहेगा हाथ जब जायेंगे दुनिया से
दौलत की खातिर रिश्ते न ठुकराइए साहिब
बेचैनियाँ,तनहाइयाँ,रुसवाइयाँ लेकर
बेवजह ही दिल को न तड़पाइए साहिब
मंदिर यहाँ मस्जिद वहाँ की बात करके यूँ
वास्ते मजहब के मत लड़वाइए साहिब
समझा चुके हमको मगर है इल्तिज़ा इतनी
थोड़ा सही पर खुद को भी समझाइए साहिब