खिले कली न अगर भौंरा गुनगुनाता क्या।
गज़ल
1212…..1122…..1212…..22/112
खिले कली न अगर भौंरा गुनगुनाता क्या।
बिना बसंत शजर कोई लहलहाता क्या।
अगर खुदा न हो कोई नहीं है मुफलिस का,
खराब वक्त में कोई गले लगाता क्या।
तेरा निज़ाम है तू सोच क्या ये वाजिब है,
कि अपने हाथ से कोई जहर खिलाता क्या।
ये कोई काम है यारो भी होशियारी का,
फिजूल वाह में घर अपना कुई लुटाता क्या।
अगर चे तेल औ बाती रही न होती तो,
अँधेरी रात में दीपक भी जगमगाता क्या।
खुदी को बेंच के गर हम विकास करते तो,
कहाँ से सोचो यूँ कोई विकास आता क्या।
कहीं भी प्रेम न होता जहाँ मे प्रेमी गर,
कभी भी प्रेम की गंगा में तू नहाता क्या।
……..,✍️ प्रेमी