खिड़की बंद पड़ी है कब से
खिड़की बंद पड़ी है कब से
वीरान सा ये बंगला में,घनघोर अंधेरा छाया।
खिड़की बंद पड़ी है कब से……
एक दिन इस कोठरी में,था उजाला का साया।
खेलते कूदते नन्हे मुन्ने,था मुस्कान की काया।
हर उत्त्सव में यह बंगला,रोशनी सा जगमगाता।
बड़े बड़े अफसर साहब,पार्टी मनाने आता।
लेकिन अभी खिड़की बंद पड़ी है कब से……..
खोल दो दरवाजा,खोल दो खिड़की।
आने दो हवाओं की सर सर सरकी।
बहुत दिनों बाद आया, सूरज की रोशनी।
सज गया बंगला अब,लोगो की हुई आना जानी।
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रचनाकार कवि डीजेन्द्र क़ुर्रे “कोहिनूर”
पीपरभवना, बिलाईगढ़, बलौदाबाजार (छ. ग.)
8120587822