खाली हाथ निकल जाऊँगा
पग रखता हूँ बहुत सँभल कर लेकिन मेरा कोई सहचर,
प्रेम डगर पर क़दम बढ़ा दे तो मैं साथ फिसल जाऊँगा।।
पीने लगूँ रक्त सहचर का इतनी व्याकुल प्यास नहीं है।
बहती अश्रुधार के बदले सुख की मुझे तलाश नहीं है।
एक भाव से जी सकता हूँ दुख का युग, पल हँसी-खुशी का।
भौतिकता की दौड़-भाग में प्रतिद्वंद्वी मैं नहीं किसी का।
इसीलिए तो चाह नहीं है वैभव के भंडारों की,
मुझे विदित है जब जाऊँगा खाली हाँथ निकल जाऊँगा।।
सदाचरण है मात्र धरोहर यही एक अनमोल रतन है।
तथ्य यही है पथ्य यही हो लक्ष्य यही हो यही जतन है।
और जतन है वचन निभाऊं मेरा जतन कभी ना छूटे।
साँस अगर टूटे तो टूटे लेकिन वचन कभी ना टूटे।
मेरी कथनी मेरी करनी सुंदर जुड़वाँ बहनें हैं,
मैं ऐसा व्यक्तित्व नहीं जो कहकर बात बदल जाऊँगा।।
माली के विभिन्न फूलों का मैं लावण्य निहारूँगा।
किंतु पिरो दे एक सूत्र में तो आरती उतारूंगा।
देश-दुर्ग में ईंट नींव की बनना भी स्वीकारूँगा।
स्वीकारूँगा प्रणय बाद में पहले तन मन वारूँगा।
प्रेम करूँगा बैर भाव के मूल समेत नष्ट होने तक,
मैं वो हृदय नहीं जो बैरी पर कर घात बहल जाऊँगा।।
दागी यदि प्रतिबिंब दिखे तो दर्पण दागी बतला देना।
बहुत सरल है कड़वे सच का अर्पण बागी बतला देना।
गहराई की थाह न उसको हल्कापन ऊपर बहता है।
वो पलकों पर पनघट वाला जग मुझको पत्थर कहता है।
वो आकर्षक मोम के चेहरे मेरे दुख पर द्रवित न होंगे,
पर मैं पत्थर उनके दुख की सुनकर बात पिघल जाऊँगा।।
संजय नारायण