खाय-खाय केॅ नाँचै छै
देखोँ कुकर भुकोँ रहलोँ छै
जे साथ लेलॊ छै चील कौआ के
सरकारी रोटी पर पलोँ रहलोँ छै
अपने धरती केरौ फाट मे बाँटै छै
आनह धागर संगे चलों छै
साच बात बुझी हां मे हां
सब कुछू झाँपै रहलऽ छै
चिड़िया-चुनमुन जयसै
खाय-खाय केॅ नाँचै छै
कटलोॅ-छटलोॅ केॅ संस्कृति भाषा के
गर्दन केरौ सिधे कट्टा से काटौँ छै
तय्यो सभ्भे केरौ निक लागै छै
महाकवि कहिकै नै थाकै छै
कत्तेॅ टाँगा फैलाय लेलकोँ जानहो
मुत त देखहो तोंय पर रहलऽ छै
खाय-खाय केॅ नाँचै छै
मौलिक एवं स्वरचित
© श्रीहर्ष आचार्य