खामोश मुहोबत
खामोश मुहोबत सदा खामोश रहना चाहती है ,
अपने जज़्बात को जज्ब रखना चाहती हैं।
नहीं चाहती उसका अफसाना कहीं बयां हो ,
इसीलिए अफसाने को बंद रखना चाहती है ।
कहने से होगा भी हासिल ,यूं ही फसाने बनेंगे,
अपने आप को इसीलिए जहां से बचाना चाहती है।
दूर से ही देख लिया अपने खुशनुमा चांद को,
सुकून दिल को मिला ,बस और क्या वो चाहती है !
उम्र सारी गुजार दी बस एक वायदे पर ,एक आस पर ,
एक यकीन पर अपनी जिंदगी गुजरना चाहती है ।
एक पाक मुहोबत तो ऐसी ही होती है दुनिया में ,
जो कृष्णमय होना राधा और मीरा दोनो चाहती हैं।