ख़ामोशी का आलम…
गुजरा ज़ख्म अपनें निशाँ छोड़ जाता है
जिसतरहाँ काफ़िर, दीन-ओं-इमाँ छोड़ जाता है…
ना फेंको पत्थर, उस खामोश बहते दरिया में
कभी-कभी ख़ामोशी का आलम, तूफाँ छोड़ जाता है…
बहार बन जो चमन को करता है जन्नत
वो मौसम भी जाते हुए, ख़िज़ाँ छोड़ जाता है…
तिनका-तिनका जोड़कर बनाता है जो आशियाँ
घर का मालिक एक दिन, वो मकाँ छोड़ जाता है…
‘अर्पिता की हस्ती रफ़्ता-रफ़्ता ख़ाक हो चली
ज़िस्म-ए-ख़ाक भी घुटता हुआ धुआँ छोड़ जाता है…
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’