” खादी वस्त्र नही विचार है “
बचपन में जब भी खादी आश्रम जाती वहाँ लिखा पढ़ती ” खादी वस्त्र नही विचार है ” ये बात उस उम्र में सर के उपर से निकल जाती ! खादी जीवन में रची बसी थी उसके बावजूद ये बात समझ नही आ रही थी और किसी से पूछने में शान घट रही थी ! खैर जीवन अपनी रफ्तार में आगे बढ़ रहा था इसी बीच विवाह हुआ बेहद संभ्रांत एवं शिक्षित परिवार में , विवाह उपरांत मिलना जुलना चलता रहा सर्दियों का मौसम था इसलिए गरम कपडे़ और सिल्क पहन रही थी सबकुछ यथावत था !
गर्मियाँ शुरू हुई आदत के मुताबिक खादी का सलवार – कुर्ता , कड़क सूती दुपट्टा पहन कर खुद पर इतराती तैयार हुई और सोचा कि जैसे कालेज में इन कपड़ों की तारीफ होती थी यहाँ भी होगी , ये सोच ही रही थी कि पीछे से सासू माँ की आवाज आई ….ऐ लड़की ! ये क्या पहना है ? ” ये खादी है ” गर्व से बोली मैं…हाँ हाँ पता है कि ये खादी है पर हमारे यहाँ ये सब नही पहना जाता….ये सुनते ही बिना आवाज धड़ाम से गिरी मैं और गिरते ही समझ आ गया कि वाकई ” खादी वस्त्र नही विचार है ” ! इसको समझने के लिये किसी उम्र या शिक्षा की आवश्यकता नही होती !
आज भी उतने ही शान से खादी पहनती हूँ और अपने आप को क्या समझती हूँ इसको बता पाना जरा मुश्किल है !
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 08 – 05 – 2018 )