खांटी कबीरपंथी / Musafir Baitha
मुझे अपने जूतों की मरम्मत करवानी थी। मोची ने आठ रुपए मांगे, मैंने चार लगाया। उसने काम रोककर अपना सिर उठाकर मेरा चेहरा गौर से देखा और किंचित रुखाई भरे स्वर में कहा-“आठ से अठनियो कम में नहीं होगा, बनिया का दोकान समझ लिए हैं काs?” मैं आप ही कुछ ऊपर चढ़ा। इस दफे छह बोला। लेकिन इसबार भी वह नीचे न उतरा, अविचल कर्मरत रहा। उसकी इस बेरुखी पर मुझ शूद्र का सामन्ती अहं जवान हो उठा। मैंने मन ही मन सोचा-“कमबख्त चमार कितना हठी है?” सो, अबकी मैंने भी जिद्द ठान ली। तय किया कि आठ में तो काम नहीं ही करवाऊंगा इस चमरे से। इसका हठ मैं कतई मान नहीं सकता। “देखो जी! सात में बनाओगे तो बोलो, कि मैं चलूं?” और, मैंने वहां से चल देने का अभिनय किया। मेरा दांव चल गया था। मेरा अहं जीत गया था!
अब वह मेरे जूते में हाथ लगा चुका था, उसे धागे से टांकने लगा था। इस बीच जेब से टूटी माला निकाल दिखाते हुए उससे पूछ लिया था मैंने-“ऐ भाई मोची! मेरी यह माला टूट गयी है। क्या तुम्हारे इस धागे से यह गूंथी जा सकेगी? धागा मजबूत है?” उसने छूटते ही नरम बानी में कहा-“हाँ मालिक! बड़ा मजगूत है।” फिर फौरन अपने गले में हाथ डाल अपनी कण्ठीमाला दिखाते हुए कहा- “ई कण्ठी देखिये साहेब, इहे धागा में गूँथल है। दस बरिस हो गिया है, मगर जस के तसे है। अउर, हाँ हुज्जूुर! ई धग्गे और गूंथने का छव रुपइया से एक्को नयका पइसा कम नहीं लूँगा, अलग से।” मैंने उसकी शर्त स्वीकारी और आगे पूछ बैठा-“क्या तुम भी कबीरपंथी ही हो?” मेरी निगाह उसकी कंठी पर थी। उसने तपाक से कहा “हाँ” और चहककर प्रतिप्रश्न जागा-“तो आपो कबीरपथिये हैं?” मैं इस प्रतिप्रश्न के लिये तैयार न था, कुछ अटक-झिझककर जवाब दिया-“अss, हाँ, हाँ, बिल्कुल्ल! मैं..मैं तो खांटी कबीरपंथी हूँ।”
इस बीच वह मेरा काम निपटा चुका था और एक अन्य ग्राहक से एकदाम की शर्त मनवाकर उसके काम में लग गया था। मैंने उसे 10 के दो दो नोट दिए, जिसमें से उसे 7+6 यानी 13 रुपए काटना था। पर उसने पहले तो 10 का एक नोट ही रखा, एक लौटा दिया और फिर, 5 के छुट्टे भी मेरे हाथ में थमा दिए। यानी केवल 5 ही काटा। मैं आश्चचर्यचकित था। जब प्रश्नाकुल मुद्रा में मैं हठात उसका चेहरा निहारने लगा तो उसकी अपनाइयत भरी निगाहों ने मेरे मन की तलाशी ली! मानो, मेरे दिल के किसी कोने में ये निगाहें कहीं स्थायी ठौर पाना चाहती हों! मोची ने जुबानी कहा भी-“जाइये, साहेब, आपसे केतना पइसा लें, आप तो अपना ही निकले!” उसका यह स्नेह सना अप्रत्याशित व्यवहार एक पल को मुझे वज्र निर्वाक बना गया था। और, मेरे चेहरे पर पसीने की अनगिन क्षुद्र-सघन बूंदें रिसकर उस माघ महीने की नश्तर-सी मज्जाभेदक ठंढ में भी बरबस ही तरबतर हो आई थीं।