ख़्याल भी एक मर्ज़ है
ख़्याल भी एक मर्ज़ है
ख़याल भी अजीब मर्ज़ है
इसकी अपनी फिदरत है
अक्सर ख़्याल बिस्तर पे
अर्ध निंद्रा में
हौले से प्रवेश करता है
और एक साथ
सैकड़ों ख़याल
दनादन ज़हन के दरवाज़े पे
मन के साँकल खड़काते हैं
खट खट खट खट।
और तब और ज़्यादा तीव्र
हो जाते हैं जब महबूब
तुम्हारे दरमियान हो।
एक दिन इसी सोच में लिख डाला कि
“किसको तवज्जो दूँ पहले ,कमबख़्त
ख़याल और महबूबा एक साथ लिपटतें क्यों हैं।”
ख़याल दौड़ते भी हैं
पीछा करते हैं
झट से एक हुक फँसा कर
मेरी गाड़ी के पिछले सीट पे
चुपके से विराजमान हो जाते हैं
और रेंगते हुए आहिस्ता से
दिल में दस्तक देते हैं तब
जब कभी भी आप
अकेले ड्राइव कर रहे हों और
कोई पुराना गीत बज रहा हो।
इनके मिज़ाज का क्या?
कभी तो भरी महफ़िल में
किसी ख़ास मुद्दे पे बहस
के बीच टपक पड़ते हैं।
बात बात में
आपकी बात काट देते हैं।
फटकारो तो दुबक जाते हैं।
ये अजीब फ़ितरत है इनकी
जब इन्हें आग़ोश में लेने
की तमन्ना करते हैं तो
फिसलते हैं
और जब कहता हूँ कल आना
तो लिपटते हैं
अजीब आँख मिचौली है
और अंततः जब सबसे हार के
ख़ुद से टूट के अपने ही
ग़रेबान से लिपटता हूँ और
क़मीज़ की आस्तीन भिंगोता हूँ
तो कोई चुपके से लिपटता है
कहता है मैं हूँ तेरा जुड़वाँ
मुझसे नाराज़ न हुआ कर
मैं तो यहीं था
तेरे पास बिलकुल तेरे पास
और फिर मेरे क़लम
मेरे नहीं होते
ख़्वाबों और ख़्यालों के हो जाते हैं।
यतीश १/११/२०१७