ख़ौफ़ अब कोई नहीं जीने का सामां हो गई
ख़ौफ़ अब कोई नहीं जीने का सामां हो गई
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी के आसां हो गई
हसरतें छोड़ चली बाकी दर्दो-ग़म यहाँ
ज़िंदगी मेरी सनम खेलों का मैदाँ हो गई
बोझ थी दुनियां इसे उतार फैंका इस तरह
मुश्किल थी जो धड़कन जाने-जानां हो गई
देर थोड़ी और है खाक़ मेरे हो जाने में
या खुदा फिर ये न कहना बस्ती वीरा हो गई
फूल क्या अब ना खिलेंगे फिर से बहार आएगी
नींद के बादल हटे तो में परेशां हो गई
शोर इतना है भरा गिरने का मेरे टूट के
साँस रुकने चलो मेरी आहें तूफ़ां हो गई
–सुरेश सांगवान ‘सरु’