घायल मन
ख़ूँ से लथपथ फेंकी थी वो दूर कहीं नाले में तब
अगले दिन अख़बारों में ये घटना घटकर आती है
भारत माँ के घर में बेटी पैदा होना पाप यँहा
जब जब बेटी चीर हुई तब धारा बदली जाती है
कुल की मर्यादा के ख़ातिर सीता ने अपमान सहा
तब आँखों के दल दर्पण से अंगार निकलने लगती है
गूंगे बहरे हो जाते हैं सत्ता के मतवाले लोग
घायल मन के जंगल से फुफकार निकलने लगती है
लोग यहाँ जम-जम कर बोले नारी का सम्मान करो
अगले दिन कमरे में बेटी सूली पर चढ़ जाती है
बंद करो ये ड्रामेबाजी नौटंकी के नटवरलाल
चीर को खींचा जाता तब ये बात हवा बन आती है
सब्ज़ हवा के झोंके देता, स्वागत करता कलियों का
नाज़ से पालें अक्सर माली फुलवारी के फूलों को
बोली लगवाने फिर जाता उपवन के हरियाली की
बख़्श नहीं देता है निर्मम फूलों के उन शूलों को
इक दिन माली लोभ के मारे बेच दिया फुलवारी को
ये बर्बरता देख के रोता डाली पर पंछी नादाँ
पेड़ परिंदों से थी यारी वे भी रस्ता भूल गये
सब्ज़ हवा ने रिश्ता तोड़ा उपवन लागे अब ज़िंदाँ
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ हम सब सारे चुप बैठे
ऐसी चुप्पी से तो बेहतर आग लगा दो चुप्पी को
पापी ने जो पाप किया है भोले तेरी नगरी में
मौन प्रजा के घर-घर जाकर आज सज़ा दो चुप्पी को