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1 Sep 2024 · 1 min read

ख़ुद से अपना हाथ छुड़ा कर – संदीप ठाकुर

ख़ुद से अपना हाथ छुड़ा कर चलना मुश्किल हो जाता है
रेत लहर को पी जाती है दरिया साहिल हो जाता है

बा’द तुम्हारे ये ही मौसम कितना बोझल हो जाता है
साथ तुम्हारे ये ही मौसम कितना ख़ुश-दिल हो जाता है

आँख बराबर साथ घटा के ख़ूब बरसती है मिल-जुल के
बाहर बूँदें अंदर आँसू सब कुछ झिलमिल हो जाता है

जिस को पाने की ख़ातिर पागल थे पा कर देख रहे हो
कितना ख़ाली-पन लगता है जब वो हासिल हो जाता है

एक मोहब्बत का अफ़्साना इस में हैं कितने अफ़्साने
एक नया किरदार कहाँ से हर दिन शामिल हो जाता है

वक़्त किसी के साथ गुज़रने लगता है अंजान सफ़र में
राही साथी बन जाते हैं रस्ता मंज़िल हो जाता है

पैर मुड़े उस का तो गिरता हूँ मैं ये कैसा रिश्ता है
चोट किसी को लग जाती है कोई चोटिल हो जाता है

सूखे पेड़ों को आँधी का कोई ख़ौफ़ नहीं होता है
पेड़ लदा हो पत्तों से तो थोड़ा बुज़दिल हो जाता है

कौन चलाता है फिर उस में यारों ये काग़ज़ की कश्ती
बारिश का पानी जब घर के अंदर दाख़िल हो जाता है

संदीप ठाकुर

1 Like · 1 Comment · 189 Views
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