ख़ामुश हुई ख़्वाहिशें – नज़्म
नज़्म 【 ख़ामुश हुई ख़्वाहिशें 】
बहुत दूर निकल आये हैं मुहब्बत के सफ़र में ।
ख़ुद को मिटाकर भी न पा सके हैं उनको ।।
भरोसा कर लिया था उन फ़रेबी नज़रों पर ।
जो देख रही थी हमारे जिस्म को हर घड़ी ।।
हम उतरना चाह रहे थे रूह में अंदर तक उनकी ।
उनकी आँखों में ख़्वाब की तरह सजना था हमें ।
उनके साथ हर सफ़र में बस चलना था हमें ।।
बहुत बेदर्दी से रूख़सत किया हमें दुनिया से ।
हमारी उम्मीदों को किया टुकड़े-टुकड़े उसने ।
हमारे अरमानों को किया टुकड़े-टुकड़े उसने ।।
बहुत दूर निकल आये हैं मुहब्बत के सफ़र में ।
ख़ुद को मिटाकर भी न पा सके हैं उनको ।।
एक जान एक रुह बनने की हसरत थी मेरी ।
कमबख़्त ने मेरी ही रुह को जिस्म से जुदा कर दिया ।।
अनगिनत टुकड़ों में बाँट दिया उसी जिस्म को जिसे ।
कभी पागलों की तरह चूमा करता था वो हर पल ।।
डोली में बैठकर सजना के आँगन जाना था मुझको ।
पीहर के संस्कारों से पिया के घर को महकाना था मुझको ।।
उफ़्फ़ ! कौन सुनेगा मेरी ख़ामुशी को अब वीराने में ।
सच्ची मुहब्बत का अंजाम ख़ुदा ऐसा न दिखाए किसी को ।।
बहुत दूर निकल आये हैं मुहब्बत के सफ़र में ।
ख़ुद को मिटाकर भी न पा सके हैं उनको ।।
©डॉक्टर वासिफ़ काज़ी , शायर -कवि
©काज़ीकीक़लम
28/3/2 , इकबाल कालोनी , इंदौर , मध्यप्रदेश