* ख़ज़ाने निकल आए*
221 ,1221, 1221, 122
मिट्टी के’ हटाते ही’ ख़ज़ाने निकल आए!
दिन रात अनायास सुहाने निकल आए!
आकाश ने’ पैग़ाम दिया तूफ़ान का’ लेकिन!
चालाक़ हवाओं के’ बहाने निकल आए!!
खलिहान में’ देखा जो’ चहकते हुए बचपन!
बेबाक हमारे भी’ तराने निकल आए!!
इस बार हसीं पाक सबक ऐसा’ मिला है!
अंदाज़ जुदा आज फ़साने निकल आए!!
नायाब मुसाफ़िर घड़ी’ नज़दीक़ समझ तू!
अब मन से’ ग़ज़लक़ार पुराने निकल आए!!
धर्मेन्द्र अरोड़ा “मुसाफ़िर”
(9034376051)