खफ़ा भी नहीं
बहर:: 2212 / 2212 / 212
उसने नफ़रत की मैं ख़फा भी नहीं।
मेरी मुहब्बत उसे पता भी नहीं।
बेइंतहाॅं नफ़रत भला क्यूॅं उसे,
इतनी गिरी मेरी अदा भी नहीं।
मैने जभी देखा उसे इक नज़र,
वो मुड़ चली मेरी ख़ता भी नहीं।
वो सामने से रुख़ बदल लेती है,
इतनी मिज़ाजी तो हवा भी नहीं।
उसकी ख़ुशी को देखकर ठीक हूॅं,
इतनी असरदार तो दवा भी नहीं।
दीदार उसका यानि जन्नत मिरी,
ऐसी महरबाॅं तो दुआ भी नहीं।
उसकी अदा उसकी आँखें और वो ,
इतनी नशीली मयकदा भी नहीं।
इज़हार कर दूॅं और वो मान ले,
मैं तो भला कोई ख़ुदा भी नहीं।
मेरी गली में ही है उसका मकाॅं
इससे बड़ी कोई सज़ा भी नहीं।
संजीव सिंह ✍️
(स्वरचित ©️)
नई दिल्ली