खपरैल. (दोहे)
मिट्टी के खपरैल घर , संजोये हैं गाँव |
वही चर्मराती खाट औ, घने नीम की छाँव ||
गाँवों में अब घर हुए, कितने आलीशान |
मगर कहाँ सबको मिला, है ऐसा वरदान ||
लाली जोते खेत जब, लल्लू बनता बैल |
चटकाती है पीठ नित, टपरी की खपरैल ||
पक्की सडकों पर जले, पगतल का दृढ चाम |
मिले नहीं मजदूर को , मगर गाँव में काम ||
तन-मन से कैसे मिटें , नीले कलुष निशान |
जाति-पाति का भेद जब, लेता है नित जान ||
~ अशोक कुमार रक्ताले.