*खत आखरी उसका जलाना पड़ा मुझे*
खत आखरी उसका जलाना पड़ा मुझे
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खत आखिरी उस का जलाना पड़ा मुझे,
हक आशिकी का यूँ चुकाना पड़ा मुझे।
वो छोड़ कर अंजुमन न जाने कहाँ गए,
पथ वापिसी का भी दिखाना पड़ा मुझे।
बुझ सी गई जलती मशालें गली शहर,
हर रंग महफ़िल में भी सजाना पड़ा मुझे।
यूँ देख कर चंदन बदन सामने खिला,
फिर चाँद को भी था छिपाना पड़ा मुझे।
वो चोरनी ऑंखें नशे में हरी भरी,
वो राज दिल का भी छुपाना पड़ा मुझे।
दिलदार मनसीरत खड़ा है यहीं कहीं,
खुद की जुबां से था बताना पड़ा मुझे।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेडी राओ वाली (कैथल)