((((खता-ए-मोहब्बत))))
खता-ए-मोहब्बत थी हज़ारों इल्जाम लग गए,
हमने सनम को जी भर के देखा ही था लाखों
इनाम लग गए.
उन्होंने हम को घूर के क्या देखा सारे अरमान लग गये,
वो ज़रा सा मुस्कराए हमारे दाम लग गए।
महफ़िल थी या तमाशा थी,गाए न बजाए,किस्से तमाम लग गए,ज़िक्र उसका शुरू ही था होंठो पर लगाम लग गए।
एक इशारा उनका था,सरूर इतना हुआ के निगाहों के जाम लग गए,वो होंठों को दबाते रहे पत्थरों को भी आम लग गए।
नूर क्या छलक रहा था उस हसीना का,जो अकड़ के बैठे थे सेठ सारे गुलाम लग गए,
सब होगये बेशर्म शरीफ़ज़ादे,उसकी आवाज़ क्या सुनी बहरों को भी कान लग गए।
वो थी अनसुलझी पहेली सुलझाने में सारे इमाम लग गए,
हवा की गुस्ताखी भी देखी उसके बिखरे केसूओं को बनाने
में सारे मकान लग गए।
खामोशी थी छाई उसके हुस्न पर,तारीफ करते करते ज़नाज़े को भी जुबान लग गए,वो गहरी आँखों का रंग नापने को,नाजाने कितने ज़माने कितने आसमान लग गए।