#खज़ाने का सांप
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(कुछ रचनाएं कालजयी हुआ करती हैं । भारत की पहली पॉकेट बुक प्रकाशक संस्था ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ ने १९६७ में एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया था, “१९६६ की उर्दू शायरी”, उसमें पाकिस्तानी कवि श्री ज़ाहिद डार की कविता थी, “खज़ाने का सांप”।
एक पुस्तकप्रेमी वो पुस्तक मांगकर ले गए और परंपरानुसार वो लौटकर मेरे पास आई नहीं। लेकिन, वो कविता मेरे मन-मस्तिष्क पर आज भी अंकित है। श्री ज़ाहिद डार के भावों को अक्षुण्ण रखते हुए कुछ शब्द, कुछ पंक्तियां अपनी ओर से जोड़कर उस कविता का हिंदी रूप आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। यदि आप प्रशंसा के फूल बिखेरें तो वो श्री ज़ाहिद डार के नाम और यदि आपका समय व्यर्थ हुआ तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं।)
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★ #खज़ाने का सांप ★
मेरी माँ बताया करती थी
कहानी सुनाया करती थी
प्राचीन समय के धनपति
जीवनभर की धन-सम्पत्ति
घड़े में रखकर धरती में गाड़ दिया करते
और घड़े के ऊपर
मिट्टी का सांप रक्षक बनाकर बिठाया करते
और
घड़ा चल पड़ता
लोग अपने बेटे की बलि देते
घड़ा निकाल लेते
हमारे घर में भी ऐसा ही एक घड़ा था
मेरी माँ बहुत भोली थी
उसे मुझसे प्रेम बड़ा था
उसने मेरी बलि नहीं दी
और
घड़ा आगे चला गया
मैं माँ की कहानी को कहानी माना करता
किसी सांप से न डरा करता
लेकिन आज देखता हूं
गरम रोटी और छप्पनभोगों पर
वणिकपीठों उद्योगों पर
विस्तृत खेतों खलिहानों पर
साहित्य की सजी दुकानों पर
ऊंचे और ऊंचे आसनों पर
सदाबहार आश्वासनों पर
प्रत्येक स्थान पर
गोचरान पर
एक सांप बैठा है
मठाधीशों के पांव पखारकर
आत्माभिमान बिसारकर
जो जो निज की बलि देता है
वही घड़ा ले लेता है . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२