हम मर चुके हैं
हम मर चुके हैं
हम उतने ही मरे हैं
जितना पांडव
स्वर्ग जाते समय मरे थे
जब उनका मानव देह
गल- गल कर गिर रहा था
हमारा भी अंग प्रत्यंग
सड़ रहा है,
वो गल रहा है
प्रेम गिरा था सबसे पहले
वो सबसे ज़्यादा नाजुक था,
दया,करुणा, सद्भावना
सब शनैः-शनैः छिटक रहा है
भाईचारा-सौहाद्र भी गिर गया
मुँह ताकते रह गए हम बस
अपने को आंकते रह गए हम बस
समर्पण – सेवाभाव भी छिटकी ही समझो
धर्म के जुए का कन्धों पे हमारे भार था
धर्म बचाना हमारा सबसे बड़ा कारोबार था
नफे नुकसान का अंदाजा लगाना ही बेकार था
हम पांडवों से जरा हट के हैं
सब को कफ़न ओढ़ाते आगे बढ़ते हैं
हम धर्म का तलवार हाॅंथ में लिए चलते हैं
हम धीरे धीरे मौत में खुद को बदलते हैं
अब भी कुछ बचा है हम में
जो बचा है जतन कर रहे हैं
बचा रहे,
दरिंदगी,वहशीपने को
बड़े जतन से संभाला है हम ने
वही हमारा अशली भीत है
आज का वही तो सच्चा मनमीत है
मानवता जो टूट के बिखरी है,
सिसकती, सुबकती, छाती पीटती
आँखों से खून की ऑंसू रोती
हाँथ बांधे पीछे-पीछे घिसट रही है वो
जाने कैसे थोड़ी थोड़ी द्रोपदी हो रही है वो
वही तो धर्मराज की भार्या है
जो धर्म को अब तक ढो रही है
अब जाने वो क्यूँ आंखें मल-मल रोई है वो
कहती है – आओ कहां तलक चलोगे चलोगे ?
कब तक स्वर्ग के नाम पे खुद को छलोगे ?
थक जाओगे,सह नही पाओगे
समझो मुझको अपना खास
आओ मेरे जरा और पास
कफ़न ओढ़ाके के यहीं के यहीं
दफ़ना दूँ तुमको मैं आज के आज…
~ सिद्धार्थ