।।कड़वा है….लेकिन सच है।।
कटी पतंग जैसे,
गिरना है,
ठहरना है,
पर अब सफर नहीं।
मंज़िल है
मकाम है,
पर घर नही।
अब कौन उठाएगा?
कौन लूटेगा?
कौन छीनेगी किससे ?
और कौन बाँधेगा?
मेरे, अपने नाम की डोरी,
मुझको खबर नहीं?
छूटी बाबुल के हाथों से,
लगे पंख,
उड़ी अम्बर।
जब कट गई पतंग के जैसे।
ले, चाहें जहाँ जाए,
मुकद्दर,
मुझको अब डर नही।
गिरना है,
ठहरना है,
पर अब सफर नहीं।
सर्वाधिकर सुरक्षित स्व-रचित कविता राजेन्द्र सिंह,