क्षितिज के उस पार
क्षितिज के उस पार
क्षितिज के उस पार
तिमिर घोर तिमिर है
मैं नहीं जाना चाहता
सुना, वहां जीवन नहीं
सुना है, वहां तप नहीं
सुना है, वहां संताप है
सुना है, वहां स्वर्ग है
सुना है, वहां नरक है
मैं नहीं जाना चाहता
यहीं रहना चाहता हूं
क्यों, आखिर क्यों
यहां रहकर क्या मिला
यहां रहकर क्या किया
यहां रहकर क्या पाया
यहां रहकर क्या खोया
यह सच है, शाश्वत
कुछ नहीं मेरे हाथ, फिर
भी, क्यों जाऊं मैं वहां..
सब कुछ होगा.. होने दो
जानता हूं, वहां का जीवन
वहां जन्म होगा, फिर जन्म
लेकिन मैं अब जन्म नहीं…
चाहता,
रहना चाहता हूं स्थिर,
दीर्घायु की कामना से दूर
दूर, बहुत दूर, बहुत दूर।।
वहां अल्पायु है, यहां दीर्घायु
मैं कहीं नहीं,कहीं नहीं….
जब तुम सब मुझको देते हैं
शुभाशीष…खुश रहो, दीर्घायु हो
तो मुझे याद आती है वह उम्र..
जब मैं असहाय होऊंगा..
नजरें स्थिर होंगी….
मौन होंगे शब्द, प्रस्तर होगा तन।
मौत आएगी, ले जाएगी मुझे…
लेकिन सच मानो, मैं नहीं जाना
चाहता वहां, देख लिया जन्म!
तुम कहोगे मैं निराशावादी हूं
भला, ऐसा भी कोई बोलता है
विधि के विधान से टकराता है
तुम ही बोलो, क्यों न तोलूं..
जब उम्र बोझ हो, संबंध खार लगें
जिनके लिए जियूं, उनके लिए मर जाऊं।।
तो…मृत्यु मांगू या जीवन,
यह क्षितिज या वो क्षितिज !!
-सूर्यकांत द्विवेदी