क्षण भंगुर
ज्योतिपुंज से वातावरण शुद्ध करते
अन्तस को अपने नित्य दिव्य करते
मन का कलुष निकलता अंदर से
अगम का प्रविष्ट आत्म समन्दर में
देह नहीं है अजेय अमर सृष्टि में
ज्यों हो क्षण भंगुर बूँद वृष्टि में
काया कल्प हो जब रचित सृजन
कोन देह बनी अमर है इस भुवन
अनन्त अविनाशी वही जगत में
जिस पर हो ईश कृपा प्रलय में
क्षणिक है इस जग में आवागमन
क्षण भंगुर है अपने भी सपन
अन्तस में विधमान ज्योतिपुंज
वहीं रचता है हम सबके कुंज
मेरा तेरा है जो मही पर सम्बन्ध
वहीं रखता तेरे मेरे बीच अनुबंध