क्षणिकाएँ—1
25.07.16
क्षणिकाएँ,,,,,
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वक्त के साथ चली तो पिछड़ गयी
खुद से खुद ही महाभारत लड़ गयी
पागलों सा जीवन जीने निकली हूँ अब
ख़ुशी के साथ देखो तो सही
मैं भी लम्हा दर लम्हा ठहर गयी,,,,
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साथ का साथ जो चाहा, तो गलत हुए
हमने चारसूं इंसा पुकारा, तो गलत हुए
वक्त के साथ जो साथ मिला, उसे नकारा
अब खुद ने खुद को पुकारा, तो गलत हुए,,,
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दुःख नहीं अब किसी के धोखे का
खुद जल रौशन किये झरोखे का
राख हमारी किसी के काम जो आये
मानव बन कुछ अंधकार ही मिटाये,,,
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अपने नसीब पर अब रश्क़ करते हैं
किसी को जो न मिले हों अब तक
वो ग़म भी गले हमसे ही मिलते हैं
नसीब इतराता है घर मेरे आकर,कि
तुमसे दोस्त सब को कहाँ मिलते हैं,,,
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मुस्कान की कैद से देखो न
आँसुओं को आज निकाला है
सच,हमने ये वहम अब तक पाला है
ख़ुशी पूछेगी मेरे भी घर का पता
ये सोच पूरा घर ही सजा डाला है,,,
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**** शुचि(भवि)
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