क्रांति की ज्वाला
रे अभागे! शेर को कबतक पिंजरबंध रख पाओगे,
महाकाल के गाल स्व संग प्रियजन के प्राण गवाओगे,
है, था, रहेगा निःशंक गगन में वह उड़ने वाला,
है वीर धरा का एक ही अकेला हिम्मत वाला,
बंदी बना जग में तू क्या करते इठला-इतरा कर अभिमान,
है नहीं उस युधि विक्रम की तुझे क्षणिक भी पहचान,
है क्षमता किस मानुष में बदल सके अर्णव की चाल,
हर चट्टान को ध्वस्त किया, जब अवरोध किया बन विशाल ,
वह शेर है गीदर नहीं, वह कर्मवीर कायर नहीं,
ज्वाल है भूचाल भी,है नहीं प्रेमरस कविवर कभी ,
जब-जब उठता सागर में क्रांति की ज्वाला,
जाने कितने जलमग्न हुआ बन प्रलय निवाला,
हुए उद्भव ही तो क्या? पतन की ज्वाला में भस्म हो जाओगे,
महाकाल के गाल स्व संग प्रियजन के प्राण गवाओगे ।
रे अभागे! शेर को कबतक पिंजरबंध रख पाओगे ।
–क्रमशः
उमा झा