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23 Jan 2022 · 6 min read

क्रांतिकारी एवं योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद —–

#क्रांतिकारी एवं योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद ——–

“39 वर्षों की अवस्था का वह युवक अपने साथ असंख्य स्मृतियों का बोझ लिए भारतभूमि से विदा हो रहा था| अपने महान पूर्वजों की परंपरा और उनका उत्तराधिकार, गुरुदेव का आशीर्वाद, हिन्दू शास्त्रों का ज्ञान, पश्चिम का ज्ञान-विज्ञान, अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, भारत के अतीत का गौरव, उसका वर्तमान पतन और भावी गौरव का आभास, तेज धूप में खेतों में श्रमरत करोड़ों भारतवासियों की आशा-आकांक्षाएँ, पुराणों की भक्तिपूर्ण कथाएँ, बौद्ध दर्शन की दार्शनिक उड़ानें, वेदान्त का इंद्रियातीत सत्य, भारतीय दर्शन की सूक्ष्मता, संत कवियों के प्राणस्पर्शी भजन, अजंता-एलोरा के प्रस्तर शिल्प तथा मूर्तिकला, राजपूत और मराठा योद्धाओं की वीरगाथाएँ, आलवार भक्तों के स्तोत्र, उत्तुंग हिमालय की तुषारमंडित गिरि श्रंखलाएँ, गंगा की कलकल ध्वनि- इन सबने मिलकर स्वामी के मन पर भारतमाता का चित्र अंकित कर दिया था|…….. स्वामी सोच रहे थे…… धर्मसंसद में भारतमाता का प्रतिनिधित्व करने के लिए माँ के पास विवेकानंद से योग्य कोई पुत्र नहीं था क्या?”
यह भावपूर्ण उद्धरण स्वामी विवेकानंद द्वारा विश्व धर्म संसद में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधित्व हेतु विदेश गमन के प्रसंग का है| आज भी जब हम स्वामी जी के बारे में सोचते हैं तो मन दिव्यता से भर उठता है और लगता है कि उनके जैसा प्रखर ओजस्वी व्यक्तित्व दूसरा नहीं हुआ| उनके स्मरण मात्र से शक्ति मिलती है| आज स्वामी जी का विशेष स्मरण इसलिए क्योंकि यह उनकी जन्मजयंती का अवसर है| 1863 ईस्वी में 12 जनवरी को मकर संक्रांति के पावन अवसर पर इस क्रांतिकारी संन्यासी का जन्म हुआ|
स्वामी विवेकानंद कौन थे, यह कह पाना साधारण लोगों के लिए असंभव है| उनके बाह्य जीवन, कार्यों और विचारों की ही चर्चा की जा सकती है| विवेकानन्द किस स्तर के व्यक्ति थे, यह अनुमान करने के लिए इतना स्मरण कर लेना ही पर्याप्त है कि वे ठाकुर रामकृष्ण परमहंस जैसे सदा ईश्वर-भाव में अवस्थित रहने वाले संत के शिष्य ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी थे| ठाकुर ने नरेंद्र से प्रथम भेंट में ही भावविह्वल होकर कहा था- “तू इतने दिनों के पश्चात आया| मैं किस प्रकार तेरी प्रतीक्षा कर रहा था – तू सोच भी नहीं सकता| विषयी मनुष्यों की व्यर्थ बकवास सुनते-सुनते मेरे कान जले जा रहे हैं……….. मैं जानता हूँ प्रभु! आप वही पुरातन ऋषि-नर रूपी नारायण हैं| जीवों का इस दुर्गति से उद्धार करने के लिए आपने पुनः संसार में अवतार लिया है|”
उस समय नरेंद्र को यह सब एक विक्षिप्त के प्रलाप से अधिक नहीं लगा था| परंतु आज हम जानते हैं कि ठाकुर के शब्द किसी ईश्वरीय विधान का संकेत थे|
ठाकुर नरेंद्र की तुलना पौराणिक पक्षी होमा से करते थे| होमा पक्षी कभी भूमि पर पैर नहीं रखता| आकाश में उड़ते हुए ही अंडे देता है, गिरते हुए अंडे में से बच्चे का जन्म होता है और भूमि पर गिरने से पहले ही नवजात पक्षी उड़ना शुरू कर देता है| ठाकुर का कहना था कि इसी प्रकार नरेंद्र जैसे लोग नित्यसिद्ध होते हैं, संसार की माया में फंसते ही नहीं, सीधे ईश्वर के मार्ग पर चल देते हैं| ठाकुर ने अपने एक अतींद्रिय अनुभव को साझा करते हुए कहा था कि एक दिन ध्यान में उनकी चेतना ऊर्ध्वगामी होते हुए उस दिव्याकाश में पहुंची जहां सप्तर्षि गहन ध्यान की अवस्था में बैठे हुए थे| उस आकाश का एक भाग घनीभूत होकर एक शिशु में परिणित हो गया| शिशु ने ध्यानमग्न ऋषियों में से एक को पुकारा, लेकिन ऋषि का ध्यान न टूटा| उसने पुनः प्रयास किया| इस बार ऋषि ने आँखें खोल दीं| शिशु ने अनुरोध के स्वर में कहा-“मैं जा रहा हूँ, आपको भी आना होगा|” ऋषि प्रकट कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके भाव से स्पष्ट था कि उन्होंने अनुरोध स्वीकार कर लिया है| ठाकुर का संकेत था कि वह ऋषि स्वामी विवेकानंद ही थे और वह शिशु थे स्वयं ठाकुर| ठाकुर ने कहा था जिस दिन नरेंद्र जान जायेगा वह कौन है फिर वह इस शरीर में नहीं रहेगा| नरेंद्र ने ठाकुर से निर्विकल्प समाधि में डूबे रहने की इच्छा की थी, लेकिन ठाकुर जानते थे कि नरेंद्र के लिए क्या महान कार्य शेष पड़ा है, इसलिए ठाकुर का नरेन्द्र को उत्तर था- “स्वार्थी मत बन|
माँ की कृपा से यह स्थिति तेरे लिए सहज हो जाएगी| तुझे उस समाधि से भी आगे जाना है|” ठाकुर कभी-कभी माँ काली से कहते – “माँ उसके अद्वैत ज्ञान को दबा कर रख, मेरा बहुत सा काम है|” यह तो बाद में ही स्पष्ट हुआ कि ठाकुर नरेंद्र के लिए किस महान कार्य का संकेत कर रहे थे|
केशवचन्द्र सेन से नरेंद्र की तुलना करते हुए ठाकुर ने कहा था कि केशव में जिस एक शक्ति का विकास हुआ है, नरेंद्र में उस प्रकार की अट्ठारह शक्तियाँ विद्यमान हैं|
स्वामी विवेकानंद को हम केवल एक संन्यासी या साधु के रूप में ही नहीं जानते| उनका चिंतन बहुआयामी था, हालांकि आध्यात्मिकता की एक अन्तःसलिला उनके चिंतन में सदैव उपस्थित थी| पश्चिम को उन्होंने भारत के आध्यात्म से ही नहीं परिचित करवाया, बल्कि भारतीयता एवं भारतीय समाज को समझने की नवीन दृष्टि भी दी| अन्यथा उससे पहले पश्चिमवासी भारत, भारतीयों और भारतीयता को धर्मांध ईसाई मिशनरियों या औपनिवेशिक मानसिकता वाले विद्वानों की दृष्टि से ही समझते आए थे| स्वामी जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व और भाषणों को देखने और सुनने के बाद पश्चिमवासियों ने अनुभव किया कि भारत किस गौरवशाली संस्कृति वाला देश है| उनके लिए स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जो स्पष्ट शब्दों में धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या कर रहे थे और ईश्वर को आनंदस्वरूप घोषित कर रहे थे|
स्वामी जी के बारे में ‘न्यूयार्क हेराल्ड’ ने लिखा था- “After hearing swami’s speech, a thought came, sending missionaries to a country which have such great religious thoughts is literally idiotic.”
जब वे विश्वविजयी विवेकानन्द होकर भारत लौटे, तब एक बार फिर उन्होंने पूरे देश की यात्रा की| अब वे अनाम संन्यासी नहीं रह गए थे| हर जगह उनका भावपूर्ण स्वागत हुआ| अमेरिका के डैट्रायट नगर में वे कह आए थे- “भारत को मेरा संदेश अवश्य सुनना चाहिए| मैं उसे जड़मूल से झकझोर कर रख दूंगा| उसकी राष्ट्रीय शिक्षाओं में एक विद्युत धारा प्रवाहित कर दूंगा| धैर्य रखकर देखिये कि भारत मेरा कैसा भव्य स्वागत करेगा| वह भारत है, मेरा अपना भारत……”| कोलंबो में अपने अभिभाषण में उन्होंने कहा था- “यह स्वागत न किसी बड़े राजनीतिज्ञ का है न किसी सेनानी या धनपति का ही| एक भिक्षुक संन्यासी के इस भव्य स्वागत द्वारा हिन्दू समाज ने अपने आध्यात्म प्रेम का ही परिचय दिया है…..”|

स्वामी जी की पौरुषपूर्ण वाणी में जो अद्भुत शक्ति थी उसने सोये हुए भारतवर्ष को पुनः चैतन्य किया और लाखो-करोड़ों व्यक्तियों में उत्साह का संचार किया| जमशेद जी टाटा को इस्पात उद्योग और ‘भारतीय विज्ञान संस्थान’ की स्थापना के लिए प्रोत्साहित करने वाले वे ही थे| युवकों को कर्मशील बनाने के लिए उनके शब्द थे- “गीता की अपेक्षा फुटबाल के मैदानों से तुम ईश्वर के अधिक समीप पहुँच सकते हो|” उनके ओजस्वी शब्द पराधीन भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में लगे हुए क्रांतिकारियों के लिए संजीवनी थे
1897 में उन्होंने कहा था- “अगले पचास वर्षों के लिए भारतमाता को ही ईश्वर मानो|” सुभाषचंद्र बोस ने उन्हें ‘राष्ट्रीय आंदोलन का आध्यात्मिक पिता’ कहा था| बोस के शब्दों में- “Though the Swami never gave any political message, every one who came into contact with him or his writings developed a spirit of patriotism and a political mentality. So far at least as Bengal is concerned, Swami Vivekananda may be regarded as the spiritual father of the modern nationalist movement……….. Swamiji was a full-blooded masculine personality- and a fighter to the core of his being…..”

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने महान फ्रेंच लेखक रोमां रोलां को परामर्श दिया था कि अगर भारत को जानना है तो विवेकानंद को पढ़ो| रोमां रोलां ने स्वामी जी को केवल पढ़ा ही नहीं बल्कि उनकी एक प्रसिद्ध जीवनी भी लिखी| स्वामी जी के भाषणों को पढ़कर रोमां रोलां ने अपनी भावनाएँ कुछ इस तरह व्यक्त कीं- “I cannot touch these sayings of his, scattered as they are through the pages of books, at thirty years’ distance, without receiving a thrill through my body like an electric shock. And what shocks, what transports, must have been produced when in burning words they issued from the lips of the hero!”
स्वामी जी को या स्वामी जी के बारे में पढ़ने पर क्या हमारी भी भावनाएँ कुछ ऐसी ही नहीं होती!
स्वामी जी का 39 वर्षों का जीवनकाल आयु की दृष्टि से जितना संक्षिप्त था, उनके चिंतन एवं कर्म की दृष्टि से उतना ही विशद था| उनके बारे में कितना ही कुछ लिखा गया है और भी लिखा जाता रहेगा, लेकिन फिर भी वे जो कुछ थे, उसका शतांश भी समझ पाना क्या संभव हो सकेगा? 1985 से स्वामी जी के जन्मदिवस 12 जनवरी को प्रतिवर्ष ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है| लेकिन ऐसे महान व्यक्तित्व से हमें केवल एक दिन नहीं बल्कि प्रति क्षण प्रेरित रहना चाहिए| स्वामी जी के शिष्य श्री शरच्चंद्र चक्रवर्ती के शब्द आज पूरी तरह प्रासंगिक हैं-
“ज्ञान में शंकर, सहृदयता में बुद्ध, भक्ति में नारद, ब्रह्मज्ञता में शुकदेव, तर्क में बृहस्पति, रूप में कामदेव, साहस में अर्जुन और शास्त्रज्ञान में व्यास जैसे स्वामी जी को सम्पूर्ण रूप में समझने का समय उपस्थित हुआ है|”
#ravisinghbharati
#rs7632647
#भारतमाताकीजय
(निखिलानंद की पुस्तक एवं अन्य स्रोत से साभार )

Language: Hindi
Tag: लेख
349 Views
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