क्यों विषधर इस धरती पर
जीवन की बगिया में साथी , संग संग जीना मरना है ।
फूलों की घाटी में साथी , भर उमंग से जीना है ।
खेल खेल में इस जीवन के, तय हर जीत को करना है ।
जीवन रस का मधुर पान कर , हंस कर जीना मरना है ।
जीवन पथ की पथिक तुम्हारी , राह देखती अबलाए ।
जीवन पथ की राह निहारें , क्रंदन करती माताएँ ।
माताओं -बहनों की सीमा लांघ रही हैं विपदाएं ।
जीवन पथ को सरल बनाओ , निष्कलंक हों माताए ।
नागफनी क्यों है उपजाती , बंजर रेतीली धरती ।
कांटे से क्यों पटी हुई है , अति दुर्गम टेढ़ी धरती ।
जीवन पथ की राह निहारो , चूक न जाना राहों पर ।
फन फैलाये घूम रहे हैं क्यों? विषधर इस धरती पर ।
डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव , सीतापुर 27-04-1918