क्यों मानव तुम समझ न पाये
काट वनों को भवन बनाये
क्यों मानव तुम समझ न पाये,
ठंडी छाँव गँवाकर है अब
अपनी करनी पर पछताये ।
धूल धुंआ धुंध दानव जैसे
अपना पूरा मुख फैलाये,
खोये हुए जो निज कर्म में
निरीह जन को ग्रास बनाये ।
खेत उजाड़े पेड़ उखाड़े
कूप सरोवर सब पटवाये,
रूठी सारी बहती नदियाँ
उनके तीरे घर बनवाये ।
चारों ओर बनीं इमारतें
लगता मानों मुंह चिढ़ाये,
उष्ण शीत का नहीं संतुलन
कैसे जीवन है बच पाये ।
डॉ रीता सिंह
चन्दौसी ,सम्भल