क्यों बीते कल की स्याही, आज के पन्नों पर छीटें उड़ाती है।
क्यों बीते कल की स्याही, आज के पन्नों पर छीटें उड़ाती है,
बड़ी मुश्किल से आये जो पल, उन पलों को नज़र लगाती है।
वो आँसू जो आँखों को छोड़ चले थे, उनसे फिर से रिश्ता बनाती है,
दर्द के उस बाज़ार को, मेरी नसों में अब क्यों जगाती है।
वो ज़िन्दगी जो कभी तमाशा बनी, क्यों याद उसकी दिलाती है,
आज की इस सुनहरी रौशनी को, फिर अंधेरों से तोल जाती है।
फूलों पर चलना शुरू किया, फिर क्यों काँटों की चुभन सताती है,
विश्वास की डोर को थामा फिर से, अब क्यों घातों की सदा सुनाती है।
मंजिल की तरफ़ जब नज़र पड़ी, फिर क्यों भटके सफर का आईना दिखाती है,
गुनगुनाने लगी जो राहें फिर से, क्यों ख़ामोश चीख़ों की दहशत फैलाती है।
ये नींदें जो सुकूं देने लगी, अब क्यों जागी रातों की यादें डराती है,
सबकुछ खो कर तुझको पाया, तुझे खोने के ख़्याल से धड़कन थम जाती है।