क्यों पराधिन मानती अपने को?
बन मानव जब आऊं धरा पे,
मुझे अपने कोख में रख लेना,
ममता कि आंचल से हमको,
इस विधाता की सुरक्षा तु कर लेना,
रचनाकार को भी तु रच देना
अपने नाम से उसे भी मशहूर कर देना,
जीवन दाता को भी दान में जीवन दे देना,
पुत्र बन के तुम्हारा,
अपने नजरों से देखा देना यह जग हमें,
नारी सशक्तीकरण की क्या है जरुरत तुम्हें,
तेरे भाग्य को देख,जलते यह देव भी,
करता गुजारिश मैं नहीं किसी से,
पर झोली फैलाए ममत्व की भीख ,
मांगता हर पल तुमसे,
करोड़ों वर्ष तप करने पर भी,
ध्यान में भी नहीं में आता किसी के,
पर तेरे एक धागे के कारण,
ना जाने मैं क्या क्या कर देता,
मुल्य तेरा वहीं लगाएं,
अंदाजा नहीं जिसे तेरे कीमत का,
मुमकिन नहीं है जग में जो किसी के लिए,
क्षण भर में उसे तु कर देती,
नारी, शक्ति तु है हमारी,
फिर क्यों पराधिन मानती है अपने को??
प्रेम की परिभाषा तु,
शक्ति की आराधना तु,
तेरे गोद में खेल के,
पाई त्रप्ति हमने भी,
सेवा की शर्तों के बिना,
रखती हर पल तु ख्याल सभी कि,
तेरे गोद में खेलने देखो,
कतार में कितने खड़े,
नारी तु अनुपमा,
जिसके कर्ज में डूबी है सारी जहां,
फिर क्यों पराधिन मानती है अपने को??