“क्यों ना थोड़ा सा हँस ले!”
रोते हुए पैदा होता है हर इंसा
रोते हुए निकल जाती है सारी ज़िन्दगानी,
तो क्या हुआ यारो,
आओं,आज थोड़ा-सा हँस लेते है।
बचपन गुज़रता रोते हुए दुध-खिलौनों के लिए,
उलझ जाती जवानी पढ़ाई-लिखाई के चक्रव्यूह में
तो क्या हुआ…..
प्रौढ़ होते-होते न जाने कितनी लालसाएँ,आशाएँ पूरी होती, कितनी ही अधूरी रह जाती।
तो क्या हुआ…..
जीवन-चक्र चाक के समान घूमता रहता है
धर दो उसपर कच्ची मिट्टी वो आकार लेती रहती है,
कभी सुघड़, कभी बेडौल।
तो क्या हुआ….
बुढ़ापा जब है आता सिर है चकरा जाता
जेबें और हाथ वो कई बार खाली पाता,
क्या खोया, क्या पाया सब निरर्थक।
तो क्या हुआ….
जब समय हो जाता है पूरा तब है समझ में आता
बेबस मनुष्य हालात के आगे हमेशा ही शीश नवाता।
तो क्या हुआ….
और अंत में
जो जलकर राख ही हो जाना है,
पानी में ही समाना है, इस जीवन को तो सुबह की तरह शुरु होकर ,शाम की तरह ढल जाना है।
तो क्यों ना यारो,
आओं, आज थोड़ा-सा हँस लेते है।
#सरितासृजना