क्यूॅं तकती हैं आंखे तेरी आखिर मैं तेरी क्या लगती हूॅं
क्यूॅं तकती हैं आंखे तेरी आखिर मैं तेरी क्या लगती हूॅं
मैं तो वो हूं जो तनहाई में भी जाने क्या क्या बकती हूॅं
क्या आसान रास्ते से मिली थी मैं तुमको उस पहले दिन
जाने भी दो कोई नई … अब खुद को मुश्किल करती हूॅं।
अच्छा सुनो उस दिन गिरा था पेशानी पे जो इक बोसा
रूह की प्यास बुझी थी लेकिन बदन पे साकित करती हूॅं।
उस मिट्टी की क्या बात कहूं “पुर्दिल” नाम ए – यार से जो महकती है
उसके यादों के कफ़न तले ही चलो उस मिट्टी को मिट्टी मैं करती हूॅं।
~ सिद्धार्थ
साकित : मौन