“क्यूँ”
क्यूँ करूँ मैं नकल किसी की,
जब मूल स्वर मेरा है अविजित,
पंथ मेरा है कठिन किन्तु,
नहीं होती कभी मैं विचलित,
रोकती हैं असंख्य वर्जनायें,
क्यूँ रूकूँ मैं अपने पथ पे,
बाँधतीं हैं रूढ़ियाँ मुझे,
क्यूँ बंधूँ अपनी सोच से,
सोचती हूँ पुरातन कथायें,
क्यूँ न बढ़ूँ अद्दतन वेश में,
न रुक सकी न बंध सकी,
न डर कर हुयी कभी विचलित,
कि मेरा वजूद ही मेरा न रहा अगर,
तो फिर मौत क्या और जीवन क्या…
© निधि…