क्यूँ ये मन फाग के राग में हो जाता है मगन
क्यूँ ये मन फाग के राग में हो जाता है मगन
क्यों अटकता है मन
हर पुरानी याद में कभी फाग के राग में
क्यों हो जाता है मगन होली के रंग का जादू
तेरी हथेलियों में गुलाल भरे नाखूनों
के इंद्रधनुष में फिर क्यूँ अटकता है मन
गर्मी की दुपहरिया, बरगद की छाँव सा
चहरे को अपने फिर छूता हूँ
कहाँ है वो गहरा दुपट्टा तेरा,
फिर ढूँढता है मन
बरसात की बूंदों से नहाया चेहरा तेरा
पलकों पे ठहरी मोती सी बूंदे
और उनकी यादों में अपलक
सा हो जाता है मन
सर्दियों में अपने गरम ऊनी दस्तानों
के बीच मेरे चहरे को भर लेना
तेरे होने का पास मेरे
और मेरे ही गरम साँस का एहसास
फिर ढूंढता है मन
हमेशा बेख्याली में, हर पुरानी याद में
ना जाने क्यों अटकता है मन