क्या होगा कोई ऐसा जहां, माया ने रचा ना हो खेल जहां,
क्या होगा कोई ऐसा जहां, माया ने रचा ना हो खेल जहां,
कलकल करती मिलती हों, निःस्वार्थ प्रेम की नदियाँ वहाँ।
ईर्ष्या की स्याह स्याही से, ना रंगा दिखता हो मनुष्य जहां,
आदि और अंत की व्यथा से परे, अनंत का विस्तार चरित्रार्थ वहाँ।
रौशन चमकते सितारों को, ना छोड़ना पड़ता हो अपना आसमां,
मालाएं भले हीं टूटती हों, पर विश्वास के मोती ना बिखरते हो वहाँ।
राहें कितनी भी बदलनी पड़ें, पर ना बदलना पड़ता हो अपना आशियाँ,
आवरण से छल के रिश्ते मुक्त हों, अपनत्व की परिभाषा सार्थक वहाँ।
शब्दों के कोलाहल से परे, अर्थ की समग्रता व्यापक जहां,
गर्व का घड़ा विच्छेदित हो, माटी शीतलता की प्रतिबिम्ब वहाँ।
पुष्पों से खिले बाग़ तो हों, पर प्रतिबंधित हो उनको कुचलना जहां,
पतझड़ आये हर साल मगर, पत्तों से ना छूटे दरख़्त वहाँ।
बारिशें सौंधी खुश्बू तो लाये, पर ना टपकती हो कोई कच्ची छत जहां,
बादल निराशाओं के छाते तो हों, पर हिम्मतों का सूरज ना ढलता वहाँ।
असत्य की परछाईयाँ तो हों, पर सत्य की रौशनी सशक्त जहां,
निर्बल पर ना बल आजमाएं, सम्मानित होता वो पुरुषार्थ वहाँ।
तन रोग से ग्रसित भी हो तो, मानसिकता रुग्ण ना होती जहां,
संकीर्ण गलियां तो हों पर, उड़ने को मिलता हो पूरा आसमान वहाँ।