क्या हिन्दू क्या मुस्लिम यारों
क्या हिन्दू,क्या मुस्लिम यारों
ये अपनी नादानी है!
बाँट रहे हो जिस रिश्ते को
वो जानी-पहचानी है!!
क्या पाया है लड़कर कोई
छोड़ ये ज़िद्द लड़ाई की
किस हक से तू चला काटने
सिर ऐ यार खुदाई की
तेरी रगों खून है तो क्या
मेरी रगों में पानी है!
बाँट रहे हो जिस रिश्ते को
वो जानी-पहचानी है!!
हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई
ख़ुद को बाँट रहा है तू
एक शज़र के शाख हैं सारे
जिसको काट रहा है तू
जाति-मज़हब की ये बातें
बनी-बनाई कहानी है!
बाँट रहे हो जिस रिश्ते को
वो जानी-पहचानी है!!
इक मिट्टी हम सब टुकड़े
यह बँटवारा करना छोड़
इब्ने-आदम मैं भी, तू भी
‘करन’ भरम में रहना छोड़
क्या अल्लाह या राम ने सबको
दी कोई निशानी है!
बाँट रहे हो जिस रिश्ते को
वो जानी-पहचानी है!!