क्या विश्वास करु उनके बातों पे
क्या विश्वास करु उनके बातों पे,
जो हर दो घड़ी में बदलते है,
जिन्हें खुद ही नहीं पता,
कब, क्या और किससे क्या – क्या वादे कर जाते हैं।।
क्या विश्वास करु उनके बातों पे,
जो हर पल नसें में डूबे ,
अपने हि दुनिया में रहते मग्न,
जिन्हें होश ना हवास अपना,
फिर दूसरों को क्या बोलते क्या पता?
क्या विश्वास करूं उनके बातों पे,
जो नट कि तरह बदलते रहते अपना किरदार,
दोहरा चेहरा लिए जो घूमते,
जिन्हें खुद ही याद नहीं किस नाटक में क्या बोला था,
फिर हम इतने बेवकूफ तो नहीं,
जो कर लें भरोसा उनके बातों पे।।