क्या लिखू?
मैं ने सोचा
आज एक नायाब कविता लिखू
सोचा तो किस पर लिखूं
सोचा चांद पर लिखूं
सदियों से जिसकी उपमा दी जाती है
प्रिया के सुंदर चेहरे से
जिसकी शीतलता हर समय सराही जाती है
जो रात का प्रहरी कहलाता है
बच्च़ो का चंदा मामा बन जाता है
पर तभी सामने आन खड़ा हुआ सूरज
जो पृथ्वी पर जीवन का विधाता है
किरणों से पी जाता है सागर का जल
पर सागर हमेशा भरा नजर आता है
क्षितिज तक फैला उसका विस्तार
अपने सीने पर शहरों से भी बड़े
महापोत दौड़ाता है
मनुष्य जब करता नयूक्यिर बमों का परीक्षण
क्षण भर उबल फिर शांत हो जाता है
समो लेता है अपने भीतर
कितनी ही नदियों का जल
रहता है अपनी मर्यादा में प्राय
कभी बाहर नहीं आता है
धरा के अधिक से अधिक हिस्से में
पसरा रहता है
अंतरिक्ष में लटकी है धरा
पर सागर अथाह जलराशि को अंतर में समेटे है
जल की एक बूंद भी नीचे नहींं गिराता है
अपने अंतर में बने उंचे उंचे पहाड़
धरा पर धकेलता जाता है
तभी सामने आ खड़ा हुआ पहाड़
बोला, लिखना है तो मुझ पर लिखो
समुंद्र की जितनी गहराई है
उससे उतनी मेरी उंचाई है
मैंने सिर उठाया
तलहटियां तो नजर आई
जहां थी हरियाली, वृक्ष,फूल
भांति भांति के पक्षी और जानवर
पेड़ों की शाखाओं पर रहे थे झूल
पर कैसे देखूं निरंतर उंची होती चोटियां
मैं नहीं हू कोई सैटेलाइट
जो उनका खीच कर चित्र कर सकूं वर्णन
मैं नहीं कोई विधाता
जो खुद तो है वर्णनातीत
अपने निर्माण को भी
बना देता है वर्णानतीत
मैं किस पर लिखू कविता
कुछ समझ नहीं आता ।