क्या लिखूं
सोचता हूं…
लिखूं काव्य
चतुर्दिक विधाओं पर
मुस्कुराती हर छटाओं पर
कल कल जलधारों पर
मलय की फुहारों पर
टुकड़े-टुकड़ों के धरनों पर
मानवता के गहनों पर
जलहीन नदियों के सुखाडों पर
विध्वंसित वनौषधि सहित पहाड़ों पर
गंगा-यमुना-नर्मदा की पावन धारा
सरस्वती दी छोड़ सिंधु से हुआ किनारा
गोदावरी कावेरी की आक्रांत प्रहरों पर
व्यथित हिमालय की चरणों पर !
पर देखता हूं जब
असहाय पाता हूं
आतंकित घाटी को
विध्वंसित माटी को !
लुटती-पीटती कलियों को
बलात्कारी गलियों को
जिहादी नारे को
खुले फिरते हत्यारे को !
पर मैं भयभीत कहां …
लेखनी सतत् चलती रहेगी धारों पर
हर जिहादी गर्दन खंजर-कटारों पर !
#अखंड_भारत_अमर_रहे !
✍? आलोक पाण्डेय
(वाराणसी,भारतभूमि)