क्या युद्ध इस सदी में विकास साक्ष्य है?
इक्कीसवीं सदी में हम सब जी रहे
साक्ष्य हम वैश्विक प्रगति के बन रहे ।
किन्तु ये क्या प्रगति जो ?
बस संसाधनों तक व्याप्त है ।
मानसिक प्रगति के अब भी
सब साक्ष्य अपर्याप्त हैं ।
आज भी क्यों ग्रसित है हम ?
अपनी आदिम सभ्यता से ।
मात्र उदर भरण पोषण
स्व जीवन रक्षण की प्रथा से ।
कब ये मन मानव बनेंगे?
मन के सब दानव ढहेंगे ।
प्रतीक्षा क्या कर रहे हम
फिर कोई अवतार होगा ?
आयेंगे प्रभु स्वयं ही
और ये दानव दलेंगे ।
हम उड़ेलेंगे जगत मे
स्वार्थ का ही विष निरन्तर
आयेंगे जब नीलकण्ठ
फिर वो ही ये विष पियेंगे।
मन बहुत व्याकुल हुआ
देखकर ये दृश्य भीषण ।
कैसे बन्धु रौंदते
स्वबन्धु के ही राष्ट्र को ?
क्या मारते हो तुम
जिसे वो मनु नही ?
क्या उनका सृष्टा ईश
तुमसे भिन्न है ?
क्यों हमारी बुद्धि को
संकीर्ण करके
रखते हम सब
एक सीमित मापनी ?
बंट रहे क्यो
जाति, धर्म, राष्ट्र में ?
जब एक ही सत्ता
सभी में व्यापती ।
है एक सूर्य, एक चन्द्र
एक ही आकाश है ।
फिर धरा को बांटना
ये कौन सा विकास है?
निज बन्धुओं को मारकर
क्या शान्ति से हम रह सकेंगे ?
आराध्य के समक्ष हम
क्या प्रार्थना फिर कर सकेंगे ?
मनुज का अवतार
यदि हमको मिला है ।
कर्तव्य अपना भी
जनम के संग जुड़ा है ।
क्या समूचा विश्व ही
एक राष्ट्र हो सकता नहीं ?
यद्ध तज क्या शान्ति का
कोई भी पथ बचता नहीं ?
आधिपत्य भूमि का
पा जाओगे भी तुम यदि
तुम्हें माफ न कर पायेंगी
आगे की सदियां कभी।
आज ये प्रण लो
मनुजता नष्ट न हो ।
जो धर्म मानवता का
वो पथभृष्ट न हो।
दीक्षायें दो पुनः
संतानों को मनु धर्म की ।
सर्वे भवन्तु सुखिन् :
वसुधैव कुटुम्ब के मर्म की।