क्या यह महज संयोग था या कुछ और…. (2)
2. क्या यह महज संयोग था या कुछ और…?
हमारे रोजमर्रा के जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएँ घटती हैं, जो अजीबोगरीब और अविश्वसनीय लगती हैं। मेरे साथ भी कई बार ऐसी घटनाएँ घटी हैं, जो लगती अविश्वसनीय हैं, परंतु हैं एकदम सच्ची।
सामान्यतः मैं कभी-कभार ही अपनी मोटर साइकिल पर किसी अपरिचित व्यक्ति को लिफ्ट देता हूँ, परंतु कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी अदृश्य शक्ति के वशीभूत होकर मैंने अपरिचित लोगों को लिफ्ट दी और इस बहाने कुछ अच्छा कार्य करने की खूबसूरत यादें संजो लीं।
‘क्या यह महज संयोग था या कुछ और…?’ श्रृंखला में मैं ऐसी ही कुछ घटनाओं का जिक्र करूँगा, जब मेरे माध्यम से कुछ अच्छा काम हुआ।
बात उन दिनों की है, जब एक अदद सरकारी नौकरी की चाह में और बेरोजगारी के विरुद्ध जारी मेरा लगभग पंद्रह वर्षों का संघर्ष ख़त्म होने वाला था और मेरे हाथों में चार–चार सरकारी नौकरियों के नियुक्ति पत्र थे। शिक्षाकर्मी वर्ग 1, 2 और छत्तीसगढ़ पाठ्यपुस्तक निगम में एकेडमिक लाइब्रेरियन पद के नियुक्ति पत्र हाथ में थे और जेल विभाग में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्ति हेतु डॉक्यूमेंट व्हैरीफिकेशन कराने की तैयारी थी।
बचपन से ही सुनता और पढ़ता आ रहा था कि ‘ऊपर वाला देता है, तो छप्पर फाड़ के’, ‘समय से पहले और भाग्य से अधिक न कभी किसी को कुछ मिला है न मिलेगा’, ‘मेहनत कभी बेकार नहीं जाता’, ‘मेहनत का फल मीठा होता है,’ ‘कर्म करो; फल की उम्मीद मत करो’ ये सारी बातें अब मैं अपने पर ही लागू होते देख रहा था।
अगस्त, 2008 का दूसरा सप्ताह था। आकाशवाणी की ड्यूटी से लौटने में देर हो गई, तो रात को अपने रायगढ़ वाले क्वार्टर में ही रुकना ठीक लगा। पूरा परिवार रायगढ़ से 18 किलोमीटर दूर गृहग्राम नेतनागर में था। अगले दिन छुट्टी थी, सो सुबह ही आराम से निकलने का निश्चय किया।
रात को देर से सोने के बावजूद अचानक सुबह तीन बजे नींद खुल गई। बहुत कोशिश करने पर भी जब नींद नहीं आई, तो मैंने सोचा, ‘जहाँ छह बजे गाँव के निकलना है, वहाँ चार बजे ही निकल लूँ। क्या फर्क पड़ता है।’
बस फिर क्या था, कपड़े पहना और अपनी मोटर साइकिल से निकल पड़ा।
लूटपाट की आशंका होने के कारण सामान्यतः मैं शार्टकट में कयाघाट के रास्ते से न जाकर घूमते हुए गीता भवन चौक से आता-जाता था, परंतु उस समय सोचा कि इतनी रात (भोर) को कौन-सा चोर उचक्का बैठा होगा, कयाघाट वाले रास्ते पर ही निकल पड़ा।
घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित कयाघाट पुल के पास मुझे एक सूट-बूट पहने अधेड़ उम्र के व्यक्ति दिखे। पता नहीं क्यों मैं बिना डरे उनके सामने गाड़ी रोक कर बोला, ‘आइए सर, बैठिए। मैं आपको सामने मैनरोड पर ड्राप कर दूँगा। इस रास्ते में यूँ अकेला आना-जाना खतरे से खाली नहीं है। मैं एक शिक्षक और आकाशवाणी केंद्र, रायगढ़ में युववाणी कंपीयर हूँ। ये रहा मेरा आई कार्ड। आप देख सकते हैं।”
“कार्ड देखने की जरूरत नहीं है बेटा।” वे पीछे बैठते हुए बोले।
रास्ते में उन्होंने बताया कि वे एन.टी.पी.सी. लारा में सीनियर मैनेजर हैं। दो दिन पहले ही ज्वाइन किए हैं। रात को कुछ अनहोनी घटित हुईं है, इसलिए वे दूररभाष पर सूचना मिलते ही निकल पड़े हैं। उनके ड्राइवर ने फोन नहीं उठाया, सो वे पैदल ही निकल पड़े हैं। सोचा, कोई न कोई साधन तो मिल ही जाएगा।
मैंने उन्हें बताया कि रायगढ़ बहुत ही छोटा और अपेक्षाकृत पिछड़ा इलाका है, जहाँ यातायात के साधन आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकते, वह भी इतनी सुबह-सुबह।
चूँकि मेरा गाँव भी एनटीपीसी लारा से महज पाँच किलोमीटर दूर है, सो मैंने उन्हें लारा तक छोड़ दिया।
रास्ते में बातचीत के दौरान उन्होंने मेरी शैक्षिक योग्यता के अनुरूप नौकरी का ऑफर भी दिया। जब मैंने चार-चार नियुक्ति पत्र की बात बताई, तो उन्होंने बधाई देते हुए कहा, “ईश्वर की लीला अपरंपार है बेटा। अब देखो इतनी रात को आप मुझे इस अनजान शहर में मिल गए। खैर, आपकी मेहनत रंग लाई है। किसी ने सही कहा है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक न कभी किसी को कुछ मिला है और न ही मिलेगा। आपने धैर्य रखा, अपने मिशन पर लगे रहे, नतीजा सामने है।”
वे मुझे आग्रहपूर्वक अपने निर्माणाधीन कार्यालय में ले गए और चाय पिलाने के बाद ही विदा किए।
मुझे लगता है कि शायद उन सज्जन की थोड़ी-सी मदद के लिए ही मेरी नींद उतनी सुबह खुल गई थी और शार्टकट रास्ते से निकलना पड़ा था।
खैर, वजह चाहे कुछ भी हो, मुझे बहुत संतोष है कि मैं उस दिन कुछ अच्छा काम किया था।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायगढ़, छत्तीसगढ़