क्या पाएगा मंज़िल जो अभी चला भी नहीं
क्या पाएगा मंज़िल जो अभी चला भी नहीं
कुछ कर गुजरूंगी ऐसा कभी लगा भी नहीं
देखी हैं बहुत इसने आसमाँ की बुलंदियाँ
परिंदा सफ़र पसंद है कहीं पर रुका भी नहीं
जो कहा नहीं तूने हाँ मैने वो भी किया
हालात का बहाना तो कभी किया भी नहीं
हुनर हर जगह अपनी इज़्ज़त बना ही लेगा
ना सोचो पाठशाला तो ये गया भी नहीं
वक़्त की दौलत कभी लौटकर ना आयेगी
फिर ना कहना ज़िंदगी तो में जीया ही नहीं
दर्द में भी गर चाहो सुख तो हँसना सीखो
खुश मिज़ाजो के साथ ग़म कभी रहा भी नहीं
बार- बार जो रूठेगी तो कौन मनाएगा
ऐसी तो कोई तुझमें ‘सरु’ अदा भी नहीं