क्या परिभाषा प्रेम की
प्रेम!
पर टिकी है सृष्टि
तनिक इस जग पर डालो तो दृष्टि।
उर्वी!
ने निज उर पर धारे
सरित सुमेर और सिन्धु सारे
वसुधा है करती इनसे प्यार
तभी उठाया है इनका भार
स्नेह प्रेम या कहिए इसे अपनत्व
दर्शाती है अवनि यूँ अपना ममत्व।
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माँ !
है प्रेम की मिसाल बेजोड़
उसके प्रेम की न कोई होड़
निश्छल नेह की पावन धारा
सम्मुख उसके विधाता भी हारा।
माँ शीश से चरणों तक प्रेम की प्रतिमूर्ति है
मनुज रूप में वह ईश्वर है एक विभूति है।
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तात!
पिता का प्रेम है सुदृढ़ कठोर
प्रस्तर सा देता हमें झकझोर
निश्चय ही आवरण कठोर है
भीतर कोमल ममत्व डोर है
प्रेम का है यह रूप निराला
जीने की कला में इसी ने ढाला।
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भाई-बहन हों पति-पत्नी हों
मित्र-सखा या हों प्रेमी-प्रेमिका
प्रेम कभी न बंधन बांधे
न ही माने कोई भी भूमिका
शर्तों और सीमाओं से तो होते हैं जग में व्यापार
जो हो बिना शर्तों और स्वार्थ के वह ही कहलाता है प्यार।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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