*क्या देखते हो*
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
शीर्षक -*क्या देखते हो *
उम्र के आखरी पड़ाव में हूँ ।
बस्ती से दूर सड़क पर खड़ा हूँ ।
कोई रहबर न साथी न कोई सहारा ।
नजर फिर भी चाहे कोई कनारा ।
है धुंधली सी आशा हृदय में जगी ।
प्यास भी तो मुझको गजब की लगी ।
सुबह से हूँ निकला कमर थक गई ।
न गाड़ी न रिक्शा न कोई सवारी ।
शाम भी तो देखो अब ढलने चली ।
डगर अजनबी है राह सुनसान है ।
बुरा भूख से हाल मेरा अरे राम है ।
थक गया हूँ , काया दर्द से बेहाल है ।
प्रार्थना मन ही मन में मैं कर रहा ।
ओ भगवन अरज मेरी सुनो तो जरा ।
भेज दो कोई मददगार मेरा हाल हेगा बुरा ।
हिम्मत अब मेरी जबाब है देने लगी ।
कहीं गिर न जाऊँ कहीं मर न जाऊँ ।
परिवार से मैं अपने शायद बिछड़ ही न जाऊँ ।
बच्चे हैं मेरे मासूम एक दम अभी ।
ओ मालिक कर दो दया घुमा दो जादू की छड़ी ।