क्या तुम्हारा आदमी से अब रहा नाता नहीं ।
बढ़के’ बेबस को सहारा क्यों दिया जाता नहीं,
क्या तुम्हारा आदमी से अब रहा नाता नहीं ।
सर्द रातों में ठिठुरते जो पड़े फुटपाथ पर,
जाके’ सिगड़ी पास उनके कोई’ सुलगाता नहीं ।
लाज का घूँघट उठे बिन लुट गई जो आबरू,
सात फेरे साथ भी मनमीत पड़वाता नहीं ।
क़ागज़ों की क़ब्र में होते दफ़न अधिकार जो,
हक़ ज़मीं का आसमां भी क्यों है’ दिलवाता नहीं ।
खेलते हो तुम खिलौना जानकर ‘अंजान’ से,
पर कभी टूटे खिलौने कोई’ जुड़वाता नहीं ।
दीपक चौबे ‘अंजान’