क्या जानूँ कुदरत क्या है
आदमी के वश में रहके में क्या जानूँ कुदरत क्या है।
आँखें देखता हूँ शाम तक, क्या जानूँ मैं इशरत क्या है।
दिन निकलते ही चौराहे पे होती है हाजिरी अपनी
छोड़ झोंपड़ी में दुधमुँहे मैं क्या जानूँ मोहब्बत क्या है।।
वहां पहुंच के सोचता हूँ मुझे पहले खरीद लेता कोई
जमाने का हाल देखा है मैंने,वेकारी की हालत क्या है।।
गिरे दामों पे मजबूर हो के विकता हूँ कभी कभी मैं
आंक ही नहीं पाया उल्फत में ,मेरी कीमत क्या है।।
जहां ख़रीदार के हाथ में हो मोलभाव,कैसा घमंड
मैं कौन ख़ास हूँ बाज़ार में उनका,अपने हाथ क्या है।।
बुझानी पड़ेगी पेट की आग साहब पैदा हुए हैं तो
पहचान ली है बख़ूबी ग़रीब इंसान की मुसीबत क्या है।।