क्या छिपा रखा प्रिये
क्या छिपा रखा प्रिये
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हार जाता हूँ स्वयं ही, शस्त्र सारे डालकर;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?
तीव्र बाणों की मधुर
संवेदना से आह भरता,
प्राण के प्रतिबिंब में
उस प्रेरणा की चाह करता,
मैं स्वतः ही मिट रहा, संजीवनी की खान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?
कोंपल से सौम्यता
नव कली से अनुराग पाता,
सुवास रंजित पुष्प के
किलकारियों को गुनगुनाता,
खो गया हूँ मैं मधुप, फुलवारियों के गान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?
स्नेह मन में है छिपा
निशि कोटरों से ख़ौफ़ खाता,
चंद्र की द्युति देखता
सौदामिनी उपदान पाता,
इक बार दर्शन दे प्रभा, जान आये जान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?
कुहुक करती कोकिला
कंदर्प गति मन मोहती है,
झाँक कर के बसंती
मन मृणाल को टटोलती है,
डाल जादू मोहिनी, ऋतु की नयी इस तान में;
क्या छिपा रखा प्रिये, इस मधुमयी मुस्कान में?
…“निश्छल”